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Encounters: UP में असद के एनकाउंटर के बाद चर्चा में सुप्रीम कोर्ट के नौ साल पुराने दिशा-निर्देश, कही थी यह बात

उमेश पाल हत्याकांड में करीब डेढ़ महीने से ज्यादा समय के बाद पांच लाख का इनामी और माफिया अतीक अहमद का बेटा असद आखिरकार पुलिस मुठभेड़ का शिकार हो गया। असद और उसका साथी गुलाम गुरुवार को झांसी में उत्तर प्रदेश एसटीएफ द्वारा किए गए एनकाउंटर में मारा गया। इसी के साथ पुलिस मुठभेड़ को लेकर जारी किए गए सुप्रीम कोर्ट का नौ साल पुराना दिशा-निर्देश चर्चा का विषय बन गया है।

सुप्रीम कोर्ट ने 2014 में जारी किया था दिशा-निर्देश
सुप्रीम कोर्ट ने 2014 के एक फैसले में पुलिस मुठभेड़ों, जिसमें मृत्यु या गंभीर चोट लगी हो, की जांच के मामलों में पालन किए जाने वाले दिशा-निर्देशों की एक श्रृंखला जारी करते हुए कहा था कि पुलिस मुठभेड़ों में हत्याएं कानून के शासन की विश्वसनीयता और आपराधिक न्याय प्रणाली के प्रशासन को प्रभावित करती हैं। उत्तर प्रदेश एसटीएफ द्वारा की गई मुठभेड़ के मद्देनजर पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज और अन्य बनाम महाराष्ट्र राज्य और अन्य के मामले में शीर्ष अदालत का यह फैसला महत्व रखता है।

मुठभेड़ों के दौरान दो साल में करीब 135 लोगों की हुई थी मौत
23 सितंबर, 2014 के अपने फैसले में भारत के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश आरएम लोढ़ा और न्यायमूर्ति आरएफ नरीमन (सेवानिवृत्त) की एक पीठ ने मुंबई पुलिस और कथित अपराधियों के बीच लगभग 99 मुठभेड़ों की वास्तविकता या वास्तविकता से परे मुद्दे को उठाने वाली दलीलों पर सुनवाई की थी। इन मुठभेड़ों में 1995 और 1997 के बीच लगभग 135 लोगों की मौत हुई थी।

सुप्रीम कोर्ट कही थी यह बात
यह देखते हुए कि संविधान के अनुच्छेद 21 द्वारा गारंटीकृत अधिकार, जो जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता की सुरक्षा से संबंधित है, हर व्यक्ति के लिए उपलब्ध है और यहां तक कि राज्य के पास इसका उल्लंघन करने का कोई अधिकार नहीं है। शीर्ष अदालत ने कहा था, कानून के शासन द्वारा शासित एक समाज में यह जरूरी है कि गैर-न्यायिक हत्याओं की उचित और स्वतंत्र रूप से जांच की जाए ताकि लोगों के साथ न्याय किया जा सके।

प्रकाश कदम और अन्य बनाम रामप्रसाद विश्वनाथ गुप्ता और अन्य के मामले में 13 मई, 2011 को दिए गए एक अन्य फैसले में सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस मार्कंडेय काटजू और जस्टिस ज्ञान सुधा मिश्रा (दोनों सेवानिवृत्त) की पीठ ने कहा था कि फर्जी मुठभेड़ और कुछ नहीं बल्कि कानून को बनाए रखने वाले व्यक्तियों द्वारा निर्मम हत्या है। शीर्ष अदालत ने कहा था, हमारा विचार है कि जिन मामलों में एक मुकदमे में पुलिसकर्मियों के खिलाफ फर्जी मुठभेड़ साबित होती है, उन्हें दुर्लभ मामलों में से दुर्लभतम मानते हुए मौत की सजा दी जानी चाहिए। उन्होंने आगे कहा था, हम पुलिसकर्मियों को चेतावनी देते हैं कि ‘मुठभेड़’ के नाम पर हत्या करने के लिए उन्हें इस बहाने से नहीं बख्शा जाएगा कि वे अपने वरिष्ठ अधिकारियों या राजनेताओं के आदेशों का पालन कर रहे थे, चाहे वह कितने भी उच्च पद पर क्यों न हो।

ये दिशा-निर्देश किए थे जारी 
सितंबर 2014 के अपने फैसले में शीर्ष अदालत ने कई दिशा-निर्देश जारी किए थे। जिसमें यह भी शामिल था कि जब भी पुलिस को आपराधिक गतिविधियों या गंभीर आपराधिक अपराध से संबंधित गतिविधियों के बारे में कोई खुफिया सूचना या जानकारी मिलती है, तो लिखित रूप में कम किया जाना चाहिए, चाहे वह विशेष रूप से केस डायरी में हो या किसी इलेक्ट्रॉनिक रूप में।

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सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि यदि कोई आगाह करता है या खुफिया जानकारी मिलती है दोनों के अनुसार मुठभेड़ होती है और पुलिस बल द्वारा आग्नेयास्त्र का उपयोग किया जाता है और उसके परिणामस्वरूप मृत्यु होती है, तो उस आशय की एक प्राथमिकी दर्ज की जाएगी और उसे बिना किसी देरी के सीआरपीसी की धारा 157 के तहत अदालत में भेज दिया जाएगा।

अदालत ने कहा था कि घटना/मुठभेड़ की एक स्वतंत्र जांच सीआईडी या किसी अन्य पुलिस स्टेशन की पुलिस टीम द्वारा एक वरिष्ठ अधिकारी (मुठभेड़ में शामिल पुलिस दल के प्रमुख से कम से कम एक रैंक ऊपर) की देखरेख में की जाएगी।

जांच करने वाली टीम कम से कम पीड़ित की पहचान करने, खून से सने मिट्टी, बाल, रेशे और धागे आदि सहित मौत से संबंधित साक्ष्य सामग्री को बरामद करने और संरक्षित करने की कोशिश करेगी। चश्मदीद गवाहों की पहचान करेगी और उनके बयान जुटाएगी (मुठभेड़ में शामिल पुलिस कर्मियों के बयानों सहित) और मौत के कारण, तरीके, स्थान और समय के साथ-साथ किसी भी पैटर्न या अभ्यास का निर्धारण करेगी, जो मौत का कारण हो सकता है।

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शीर्ष अदालत ने कहा था कि सीआरपीसी की धारा 176 के तहत पुलिस फायरिंग के दौरान मौत के सभी मामलों में अनिवार्य रूप से एक मजिस्ट्रेटी जांच की जानी चाहिए और इसकी रिपोर्ट न्यायिक मजिस्ट्रेट को भेजी जानी चाहिए, जो धारा 190 के तहत अधिकार क्षेत्र में आती है।

  • राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग (NHRC) की भागीदारी तब तक आवश्यक नहीं है जब तक कि स्वतंत्र और निष्पक्ष जांच के बारे में गंभीर संदेह न हो। हालांकि, घटना की जानकारी बिना किसी देरी के, NHRC या राज्य मानवाधिकार आयोग को भेजी जानी चाहिए, चाहे मामला जैसा भी हो।
  • घायल अपराधी/पीड़ित को चिकित्सा सहायता प्रदान की जानी चाहिए और उसका बयान मजिस्ट्रेट या चिकित्सा अधिकारी द्वारा फिटनेस प्रमाण पत्र के साथ दर्ज किया जाना चाहिए।
  • दिशा-निर्देशों में कहा गया है, घटना की पूरी जांच के बाद रिपोर्ट को सीआरपीसी की धारा 173 के तहत सक्षम अदालत को भेजा जाना चाहिए। जांच अधिकारी द्वारा प्रस्तुत चार्जशीट के अनुसार मुकदमे को जल्द से जल्द पूरा किया जाना चाहिए। मृत्यु की स्थिति में, कथित अपराधी/पीड़ित के निकट संबंधी को जल्द से जल्द सूचित किया जाना चाहिए।
  • अगर जांच के निष्कर्ष में रिकॉर्ड में आने वाली सामग्री या साक्ष्य से पता चलता है कि मौत भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) के तहत अपराध में आग्नेयास्त्र के इस्तेमाल से हुई है, तो ऐसे अधिकारी के खिलाफ अनुशासनात्मक कार्रवाई तुरंत शुरू की जानी चाहिए और उसे निलंबित किया जाना चाहिए।
  • पुलिस मुठभेड़ में मारे गए पीड़ित के आश्रितों को दिए जाने वाले मुआवजे के संबंध में सीआरपीसी की धारा 357-ए के तहत प्रदान की गई योजना को लागू किया जाना चाहिए।
  • शीर्ष अदालत ने यह भी कहा था कि मुठभेड़ की घटना के तुरंत बाद संबंधित अधिकारियों को पदोन्नति या तत्काल वीरता पुरस्कार नहीं दिया जाएगा।
  • यदि पीड़ित के परिवार को पता चलता है कि उपरोक्त प्रक्रिया का पालन नहीं किया गया है या उपरोक्त वर्णित किसी भी पदाधिकारी द्वारा दुर्व्यवहार या स्वतंत्र जांच या निष्पक्षता की कमी का एक पैटर्न मौजूद है, तो वह घटना स्थल के क्षेत्राधिकार में आने वाले सत्र न्यायाधीश को शिकायत कर सकता है।

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